Sunday, 15 April 2018

कबीर दास जी के दोहे


कबीरा खड़ा बाज़ार मेंमांगे सबकी खैर,ना काहू से दोस्ती, काहू से बैर।

अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी  हो !

रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय
अर्थरात सो कर बिता दीदिन खाकर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के निर्मूल्य विषयों कीकामनाओं और वासनाओं की भेंट चढ़ा दियाइससे दुखद क्या हो सकता है ?
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं
अर्थइस जगत में कोई हमारा अपना है और ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं. सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं
पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत
अर्थपतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली भी हो भी अच्छी है. चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला ही क्यों हो. फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती है !
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो समाहीं
अर्थ:  जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार हुआ. जब अहम समाप्त हुआ तभी प्रभु  मिले. जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआतब अहम स्वत: नष्ट हो गया. ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ जब अहंकार गया. प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकताप्रेम की संकरीपतली गली में एक ही समा सकता हैअहम् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है.
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत
अर्थजीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं.यदि मनुष्य मन में हार गयानिराश हो गया तो  पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है. ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैंयदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?
जल में कुम्भ कुम्भ  में जल है बाहर भीतर पानी
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी
अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर जाता है इस तरह देखें तोबाहर और भीतर पानी ही रहता हैपानी की ही सत्ता है. जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता हैअलगाव नहीं रहताज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं !  आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैंआत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है –  जब देह विलीन होती हैवह परमात्मा का ही अंश हो जाती हैउसी में समा जाती है. एकाकार हो जाती है.
तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत
अर्थकबीर कहते हैं कि ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो .जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों !
मूरख संग कीजिए ,लोहा जल तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई
अर्थ: मूर्ख का साथ मत करो.मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता  डूब जाता है . संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है.
बुरा जो देखन मैं चला बुरा मिलिया कोय
जो घर देखा आपना मुझसे बुरा णा कोय॥
अर्थमैं इस संसार में बुरे व्यक्ति की खोज करने चला था लेकिन जब अपने घरअपने मन में झाँक कर देखा तो खुद से बुरा कोई पाया अर्थात हम दूसरे की बुराई पर नजर रखते हैं पर अपने आप को नहीं निहारते !
कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार !
अर्थकबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं  जिनके सर पर ( विषय वासनाओं ) का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैंसंसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पातेउसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैंहलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं भव सागर में डूबने से बच जाते हैं
तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ
मन परतीति उपजै, जीव बेसास होइ 
अर्थतेरा साथी कोई भी नहीं है. सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीतिभरोसामन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता. अर्थात वास्तविकता का ज्ञान होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता हैइस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता हैतब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता हैभीतर झांकता है !
कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस
अर्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती हैस्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है. हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निस्सार है.
कबीर सुता क्या करे, जागी जपे मुरारी
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
अर्थ: कबीर कहते हैंअज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना हैजब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही
अर्थ: जब मैं अपने अहंकार में डूबा थातब प्रभु को देख पाता थालेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया  – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
अर्थकबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि लागे डार।
अर्थइस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता  झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ: जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।


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